यह सत्य है कि जो बोला जाता है वही वाणी होती है । पर वाणी का विज्ञान बहुत गहरा है । यह उसी प्रकार गहरा है जिस प्रकार एक गाना सुनने वाले को सिर्फ यह पता होता है कि स्पीकर गाना गा रहा है । लेकिन सत्य यह कि स्पीकर के पीछे जो सर्किट का जंजाल होता है वही उस गाने को गाता है । इसी प्रकार हमारी वाणी के पीछे कुछ नाड़ियों और तरंगो का जंजाल होता है । जिसको हम देख नहीं पाते है ।
वाणी का संबंध धुलोक (अंतिरक्ष) से होता है, धुलोक का संबंध चित से होता है , चित का संबंध बुद्धि से होता है , बुद्धि का संबंध अहंकार से होता है , अहंकार का संबंध मन से होता है और मन का संबंध नाभि से होकर व्यान प्राण से होते हुए जिव्या से होता है । वाणी हमारे व्यान प्राण से संचालित होती है व्यान प्राण ही अंतिरक्ष से शब्दो को लाता है ।
जिव्या के अंदर 182 प्रकार के छिद्र और दाने होते है जो वाणी को भिन्न भिन्न शब्द बना कर बोलते है । वाणी दो प्रकार की होती है एक तो साधारण वाणी जो हम रोजाना बोलते है इसको हम व्यष्टि वाणी भी कहते है । इस वाणी के द्वारा मनुष्य रोज़ मर्या की जरूरत को पूरा करता है । तथा ये वाणी जानवर मे भी होती है ।
दूसरी वाणी जिसको हम दिव्य वाणी या समष्टि वाणी कहते है। यह वाणी 3 प्रकार कि होती है पहली- सतोगुणी, दूसरी- रजोगुणी तथा तीसरी- तमोगुणी होती है । जब मनुष्य सतोगुणी वाणी बोलता है तो इसके बोलने से जानवर भी हिंसा छोड़ देते है तथा मनुष्य के प्रेमी बन जाते है । सतोगुणी वाणी जिव्या से निकलते ही प्रथ्वी के 284 चक्र लगा लेती है इस वाणी मे प्यार ज्ञान सत्य और सतगुण होता है , यह वाणी मनुष्य के मस्तिक के चारो तरफ ज्ञान ओर शांति का घेरा बना लेती है।
रजोगुणी वाणी 384 तथा तमोगुणी वाणी 480 चक्र लगा लेती है । रजोगुणी वाणी सत्य व असत्य का मिश्रण होता है ।
तमोगुणी वाणी की गति इतनी तेज़ होती है कि यह वाणी जिव्या से निकलते ही आपके मस्तिक के चारो तरफ क्रोध का घेरा बना लेती है तथा आपकी सोचने की शक्ति को शून्य कर देती है । यह वाणी हिंसा, क्रोध, प्रतिशोध, हत्या, छल, कपट, ईर्षा तथा झूठ से युक्त होती है ।
जब योगी पुरुष की सतोगुणी वाणी नाभि से चलकर मन और बुद्धि को एकाग्र करती हुई जिव्या से बाहर आती है तो वही वाणी दिव्य और सिद्ध कहलाती है। उस समय अगर किसी ने शाप या बरदान दिया तो शाप या बरदान सिद्ध हो जाएगा ।
पं. यतेन्द्र शर्मा ( ज्योतिषविद् एवं वास्तु विशेष्ाज्ञ )
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