भगवान् ने स्वार्थ क्यों बनाया ? क्या स्वार्थ पृथ्वी लोक पर गुरुत्वाकर्षण बल की तरह काम करता है ?

जी हाँ स्वार्थ एक गुरुत्वाकर्षण बल की तरह काम करता है ।
भगवान का इस प्रकृति के लिए सार्वभौमिक सत्य सिधान्त है कि जो जीव जिस तत्व मे पैदा होता है वो उसी मे मिल जाता है । प्रकृति मे पेड़ पोधा पैदा होते है उसी मे अपने जीवन के अंत मे सड़ गल कर उसी मे मिल जाते है । जो जल मे पैदा होता है वो उसी मे मिल जाता है । जो मिट्टी मे पैदा होता है वो मिट्टी मे मिल जाता है । आखिर यह सिधान्त कैसे काम करता है ?

भौतिक विज्ञान के अणु सिधान्त के अनुसार प्रत्येक तारा और ग्रह और लोक एक दूसरे से गुरुत्वाकर्षण बल के द्वारा जुड़ा हुआ है । अगर गुरुत्वाकर्षण बल न होता तो यह ब्रहमाण न होता । ये ब्रहमाण मे ग्रह अपने अस्तत्व को बचाने के लिए एक स्वार्थ रूपी गुरुत्वाकर्षण बल का प्रयोग करते है । यह सिधान्त भगवान ने सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही दे दिया था ।

अब प्रथ्वी भी इसी सिधान्त को अनुसरण करती है । जब प्रथ्वी स्वार्थ के इस सिधान्त का अनुसरण करती है तो प्रथ्वी पर रहने वाले सभी जीव अपने अस्तत्व को बचाने के लिए प्रथ्वी के इस स्वार्थ रूपी गुरुत्वाकर्सणबल के सिधान्त का अनुसरण करते है । इसी सिधान्त के अनुसार प्रथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल प्रत्येक बस्तु को अपने अंदर समाहित कर लेता है । यह प्रथ्वी का स्वार्थ है । प्रथ्वी अपनी बनाई हुई बस्तु को बाहर नहीं जाने देती है ।

अब इसी सिधान्त को प्रथ्वी लोक का प्रत्येक मनुष्य प्राणी अनुसरण करता है । प्रत्येक जीव स्वार्थ रूपी गुरुत्वाकर्षण बल से जुड़ा हुआ । ये स्वार्थ रूपी गुरुत्वाकर्षण बल मनुष्य को एक दूसरे से बांध कर रखता है । अगर स्वार्थ न होता तो मनुष्य के साथ साथ 84 लाख योनियो का अस्तत्व न होता है । न उन्नति होती और न प्यार होता और दुश्मनी होती । यह सब स्वार्थ रूपी गुरुत्वाकर्षण बल का कमाल है ।

इसलिए स्वार्थ जीवन को चलाने के लिए प्रकृति की महत्वपूर्ण कड़ी है । यह शरीर मे मन और बुद्धि के साथ जुड़ा होता है । शरीर की इच्छाओं के अनुसार यह अपना रूप बदल लेता है । जब स्वार्थ प्रवल रूप मे होता है तो इसकी पूरी प्राण शक्ति उसी इच्छा पर केन्द्रित हो जाती है । जब स्वार्थ उस इच्छा को हासिल कर लेता है तो यह पीछे हटना शुरू हो जाता है ।

इसलिए मनुष्य अपना स्वार्थ पूर्ण होते ही पीछे हटना शुरू हो जाता है । यह घटना एक पुच्छल तारे की तरह होती है ।
भगवान को प्राप्त करने मे योगी इस स्वार्थ का सदुपयोग कर लेते है । तथा स्वार्थ को भगवान दर्शन मे बहुत मजबूत बना लेते है ।

पं. यतेन्द्र शर्मा ( ज्योतिषविद् एवं हिन्दू सनातन धर्म चिंतक )

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