जिस अन्न को ग्रहण करने से पवित्र विचार आते है , शरीर मे तामस वृत्ति की बृद्धि नहीं होती है , काम इंद्री मे वासना शांत हो जाती है वही है पवित्र अन्न , आंखे देखने मे दूषित नहीं होती है , मन शांति को ग्रहण करता है , सांस और चित राहत महसूस करते है , भोजन के बाद बेचैनी नहीं होती है , भोजन के बाद विष नहीं बढ़ता है , भोजन के बाद आलस नहीं आता है वही है पवित्र ।
जो अन्न पाप की कमाई का न हो , भोजन व्याज के कारोबार से कमाया धन न हो , रिश्वत का धन न हो , किसी के चोरी किए हुए धन का न हो ।
इसके अलावा जब भोजन ग्रहण करते है तो उससे पहले गायत्री मंत्र का जाप भोजन के उपर करते है तो अन्न पवित्र हो जाता है । भीष्म पितामह म्रत्यु शैया पर थे तो उनको रानी द्रोपड़ी भोजन देने जाया करती थी तो भोजन देने पहले भो गायत्री मंत्र से उस भोजन को पवित्र किया करती थी ।
इसी प्रकार रानी कौशल्ल्य के गर्भ मे जब राम थे तो उन्होने राष्ट्र का भोजन त्याग दिया था । और खुद महल मे काम करके उस मेहनत से कमाए धन से भोजन ग्रहण किया करती थी । जब इस बात का राजा दशरथ को पता चला तो वो बहुत व्याकुल हो गए थे । उन्होने ऋषि वशिष्ठ को यह बात बताई तो ऋषि वशिष्ठ अरुंधति के साथ कौशल्ल्या से मिलने गए तथा राष्ट्र का भोजन न करने का कारण पूछा तो रानी ने कहा यह राष्ट्र का धन पवित्र नहीं है यह कर का धन है यह दूषित है । इसको ग्रहण करने से मेरे बेटे का मन और आत्मा दूषित हो जाएँ गे । इसलिए ऋषिवर मैं यह राष्ट्र का अन्न ग्रहण नहीं करूंगी ।
इसी प्रकार ऋषि भारद्वाज ने रावण की लंका मे जाने से मना कर दिया था । और कहा था आपके राष्ट्र का भोजन नहीं करूंगा । वह अन्न दूषित है । फिर रावण और मंदोदरी ने स्वयं हल जोतकर अन्न उगाया था । तब ऋषि भारद्वाज लंका पधारे थे ।
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पं. यतेन्द्र शर्मा ( वैदिक & सनातन चिंतक )