माँ के गर्भ मे पल रहे बच्चे के 3 महीने बाद यानि चौथे महीने मे आत्मा का प्रवेश हो जाता है । तथा छटे महीने मे बच्चे का मन का प्रवेश हो जाता है । तथा 6 वे महीने मे ही मन और आत्मा का संबंध गर्भ मे होता है । जब यह मन और प्राण का संबंध गर्भ मे होता है तो बच्चा गर्भ मे क्रीडा करने लगता है । घूमने लगता है ।
अगर किसी कारण बस माता पिता उस समय संभोग कर लेते है या माता कोई शारीरिक परिश्रम कर लेती है तो बच्चे के जल की थेली मे जाने की संभावना हो जाती है जिसके कारण जल की थेली फट जाती है और बच्चे या माता की म्रत्यु की संभावना हो जाती है । इसलिए गर्भवती माता को 6 वे महीने मे बहुत सावधानी रखनी चाहिए ।
सातवे महीने मे मन प्राण आत्मा और चित का संबंध पूर्ण हो जाता है । ऐसे स्थिति मे अगर बच्चा 7 वे महीने मे पैदा हो जाये तो वह जीवित रह जाता है । लेकिन पूर्ण विकाश सूर्य और चन्द्र की नाड़ियो के हृदय के मिलान से होता है ।
आठवे महीने मे गर्भ मे बच्चे का ह्रदय माता के हृदय से जुड़ा होता है । उस समय बालक माता के हृदय से सूर्य और चन्द् की नाड़ियो के माध्यम से दिल की परिपक्कता कर रहा होता है । अगर ऐसे मे बालक गर्भ से बाहर आ जाये तो बालक और माँ दोनों ही मर जाते है ।
इसलिए बालक को बहुत संस्कारी बनाने के लिए 6,7,8वे महीने मे माँ को बहुत संस्कारी होना चाहिए । तथा 6,7,8 वे महीने मे चंद्रमा की किरणों को गर्भ के अंदर प्रवेश कराना चाहिए ।
पं. यतेन्द्र शर्मा ( वैदिक & सनातन दार्शनिक )