यह एक स्वाभाविक क्रिया है कि मानव जाति मे दो मत और दो राय और दो विचार प्रत्येक कर्म और सिधान्त और विज्ञान मे होते है । यह सत्य है कि मानव का ह्रदय और आत्मा नास्तिक नहीं होते है । प्रकृति के आवेशों मे आकर मन और बुद्धि नास्तिक हो जाते है ।
मन जब प्रकृति मे रमण करता है तो मन प्रकृति के भौतिकताबाद मे इतना लीन हो जाता है कि मन को यही लगता है कि प्रकृति का निर्माण स्वत प्रतिकृया से हुआ है , इसमे भगवान का कोई योगदान नहीं है । तथा मन परलोक का विचार ही छोड़ देता है । तथा मन अपने जीवन को प्रकृति के सिद्धांतों तक ही सीमित कर लेता है । जिसके कारण ह्रदय मे नास्तिकता आ जाती है ।
इसका दूसरा मुख्य कारण है कि नास्तिक मानव के अंतकरण मे पिछले जन्म के कुछ दुराचारी संसकार संचित रहते है । जिसके कारण उसकी बुद्धि मे विचार ही नास्तिकता के भ्रमण करते रहते है । नास्तिक मानव कहता है कि अग्नि , जल ,वायु , प्रथवि ,ग्रह , नक्षत्र और तारे सब अपने आप ही बन गए थे ।
लेकिन आस्तिक मानव यह सोचता है कि अगर जल, वायु ,अग्नि ,प्रथवि सब अपने आप ही अगर बन गए थे तो इनमे प्राण वायु का संचार कैसे हुआ था । ये चलायमान क्यो है । एक निश्चित समय पर सभी की म्रत्यु क्यो होती है । मरने बाद क्या होता है । सबका जीवन सोच और वाणी अलग अलग क्यो होती है । शरीर मे विचारो की उत्पत्ति , ध्यान समाधि , योग भक्ति , संगीत ये सब किसने बनाए है ।
आस्तिक मानव इन सब पर विचार करके भगवान की धारणा को मजबूती देता है और कहता है कोई तो सत्ता ऐसी है जो इस संसार सागर को चला रही है ।
जब ये विचार मानव के मन मे आते है तो मन से बुद्धि मे जाते है और बुद्धि से चित मे और चित से आत्मा मे चले जाते है । और आस्तिक मानव भगवान की गोद मे ओतप्रोत होने लगता है ।
पं. यतेन्द्र शर्मा ( वैदिक & सनातन चिंतक )